Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३१७

चहति दूर ते पहुणची आइ।
हुइ निरास बिन दरशन गमनहिण१
बहुत बिसूरहिणगी२ दुख पाइ।
दया करन को बिरद संभारहु
आइसु देहु सकल दरसाइण३।
धरैण भावनी४ सकल भामनी५
गुर जी! पठवहु+ तिनै बुलाइ ॥५॥
तबि सतिगुर आइसु इमि कीनसि
जितिक भारजा न्रिप की होइण।
दासी आदि अपर जे दारा
रंगदार अंबर ले जोइ।
सभि सोण करहु सेत करि पोशिश६
मुख को नहीण छुपावहि कोइ।
दरशनि करि करि सगरी गमनहिण
इस प्रकार की बनि कै सोइ ॥६॥
देग अहार अचहिण, नहिण शंकहिण
दरशहिण, नहिण लाजहिण मन मांहि।
इमि दरशनि को करहिण आन करि
जे तिन के चित महिण अति चाहि।
सावन सुनि करि तहिण ते गमनो
गुर आइसु को कहि तिह पाहि।
मैण कहि बहु बिधि अस ठहिराई७
देनि दरस तिय मानहिण नांहि८ ॥७॥इसत्री नहिण हग़ूर महिण पहुंचहिण९


१जावंगीआण।
२झूरनगीआण।
३सज़भे दरशन कर लैं।
४शरधा।
५इसत्रीआण।
+पा:-पठहु।
६चिज़टी पहिरके पोशाक।
७गुरू जी ळ कहिके इह गज़ल मुकरर कीती हैछ-।
८(गुरू जी) इसत्रीआण ळ दरशन देणा मंनदे नहीण सन।
९इसत्रीआण (गुरू के हग़ूर) नहीण पहुंचदीआण।

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