Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ३) ३१५
३६. ।बाबा मोहरी जी मिले॥
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दोहरा: करि कारज अरजन गुर,
परम प्रसंनता पाइ।
करो चहति बड बीड़ को,
सभि बानी इक थाइ१ ॥१॥
चौपई: चलनि सुधासर की करि तारी।
सुनी मोहरी ने सुधि सारी।
अति प्रसंन मोहन हुइ गइअू।
परो चरन पुसतक सभि दइअू ॥२॥
-महां मसत जो किसहि न मानहि।
सभि सोण अनरस बाक बखानहि।
किम इन के होयहु अनुसारी?
करी नमो पुन चरन अगारी ॥३॥
जो गुर रामदास के आगे।
निमो नहीण पित बाकनि तागे।
यां ते गुर अरजन बडिआई।
आदि निम्रता कुछ लखि पाई२ ॥४॥
जो चारहु सतिगुर मैण जोति।
सो गुर अरजन बिखै अुदोत-।इम बीचार मोहरी आयो।
देखि दूर ही ते हरखायो ॥५॥
जाइ प्रदछना दीनसि गुर की।
बंदति भयो प्रीति करि अुर की।
श्री अरजन गुर! गान अुदारे।
क्रिपा करहु घर चलहु हमारे ॥६॥
जथा बिदर के गए निकेत।
दई बडाई प्रीति समेत।
प्रेम रिदे को देखनि करो।
यां ते दीन१ धाम पग धरो ॥७॥
१सारीआण बाणीआण इज़क थां (करके) वज़डी बीड़ बणांी चाहुंदे हन।
२गुरू अरजन जी दी गौरवता ते निम्रता आदि (बाबे मोहन ने) कुछक जाण पाई है।