Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३१८

बरजी रहहिण वहिर के थान।
नमो करति बिन देखनि ते सभि,
तुम को१ इस बिधि कीनि बखान।
-सेत बसत्र पहिरावहु सभि को
पुन पावहिण दरशन इत आनि-।
सुनि महिपालक मानी तिस बिधि
मुदति भयो मन बिखै महांन ॥८॥
सभिनि देग ते भोजन खायो
बहुर गयो संग ले रणवासु२।
बसत्र सुपेद सभिनि तन धारे
बदन अछादो नहिण किस बासु३।
सतिगुर खरे रहति गहि कीलक४
बीच चुबारे अूच अवासु।
हुती दरीची५ निकट तिसी कहु
दरशन करहिण जिनहुण कहु पास ॥९॥
तिस के तरे खरे हुइ करि कै
अवलोकति गुर रूप सुजान।दरशन करि करि गमनति आगे
अपर आइ हेरहिण तिस थान।
देश बदेशनि की बडि संगति
इसी रीति दरसति है आनि६।
अंगीकार अकोर करहिण नहिण
एक दिवस को लेण हितु खानि ॥१०॥
इह मिरजाद करी श्री गुरु जी,
निकट सिज़ख इस बिधि को जानि७।
सोई करहिण अपर नहिण बरतहिण


१(पर) तुसाळ।
२राणीआण ळ।
३मूंह ढकिआ ना किसे कपड़े नाल।
४किज़ली।
५बारी डफाछ, दरीचा।
६आके।
७नेड़े रहिं वाले सिख इस ळ जाणदे हन।

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