Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३२०

जिम रघबर के सर१ सफलाइ ॥१४॥
रहो कितिक दिन, नितिप्रति दरसहि
बंदन करहि भाअु बहु ठानि।
नहीण भारजा२ प्रापति होई
करे बेग गमनी अुदिआन३।
देग करावति रहोगुरू की
सचिवनि सहत करति तहिण खांनि४।
डरहि अवज़गा ते कछु होहि न,
मन ते नम्री रहै महानि ॥१५॥
कितिक दिवस बसि बिदा भयो पुन
सतिगुर आइसु तिसु को दीनि।
सावंमज़ल गुरू है तुमरो
इस को निति मानहु हित कीनि।
सुत जिवाइबे आदि कामना
पूरब पूरन करी प्रबीन।
अभि भी बाणछति देइ सभिनि तिन*
शरधा धरहु कशट गन छीन५ ॥१६॥
सरब देश तुमरे को गुर+ है
हित करि सेवहु प्रिथम समान।
हाथि जोर न्रिप ने सिर धारी
तिन के निति अनुसारि महान।
मनहु प्रान सभि के सुत ऐसो६
म्रितक जिवाइ दियो बड दान।
इस ते नीको आन कौन है
जिस करि तुमरो दरशन ठानि ॥१७॥

१तीर।
२औरत।
३छेती नाल जंगल ळ चली गई।
४भाव लगर विच रोटी खांदा।
*पा:-नित।
५सारे कशट दूर होणगे।
+देखो इसे रास दे अंसू ३२ अंक २९ दी हेठली टूक।
६सभ ळ पुज़त्र ऐसी (चीग़ है) जो मानो प्राण (दे तुज़ल है)।
(अ) मानो सारिआण दे प्राण (रूपी) ऐहो जहे पुज़त्र ळ।

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