Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ४) ३१७

४१. ।वग़ीर खां दा आअुणा॥
४०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ४ अगला अंसू>>४२
दोहरा: इस प्रकार केतिक दिवस,
बसे बसति निरमोह१।
कबि कबि चढि कै खालसा,
रिपु मुकाबले होहि२ ॥१॥चौपई: शाहु हुकम सीरंद मैण आयो।
तबि वग़ीर खां सभि सुनि पायो।
गिरन बिखै गुर धूम अुठारी।
तहि तुम जाहु लेहु दल भारी ॥२॥
मिलहि गुरू तबि मेलनि करो।
नांहि त सनमुख है करि लरो।
सुनि सिरंद को सूबा तबै।
तारी करी चढनि की सबै ॥३॥
दूर दूर ते चमूं सकेलि।
गज बाजनि पर ग़ीननि मेलि।
लाखहु सुभट जोर करि३ चढो।
दुंदभि बजो बीर रस बढो ॥४॥
चले निशान सैणकरे आगे।
बादत४ बजन सैणकरे लागे।
मनहु समुंद्र अुमड करि चाला।
पैदल पसरे जहि जल जाला५ ॥५॥
नक्र मतंग, मज़छ बड घोरे६।
बड़वा अगनि शसत्र चहुं ओरे।
तुंमल बडे तरंग अुठते७।
बाद नाद बड जोण गरजंते८ ॥६॥

१निरमोह बसती विच।
२हुंदा है।
३जोड़ के।
४वाजे।
५जिज़थे पैदल सैना है अुह मानो समुंदर विच बहुता जल पसारिआ है।
६हाथी मानो तंदूए हन ते घोड़िआण रूपी वडे मज़छ हन।
७फौजी दसते मानो बड़ीआण बड़ीआण लहिराण अुठदीआण हन।
८वाजिआण दी अवाज मानोण (समुंदर)गज़जदा है।

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