Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३२२
आवहु, सज़चनि सज़च! पुकारहिण
बहुर सराहहिण सेव दिखाहिण१।
ईणधन आनहिण२ आइसु मानहि,
जो सिख कहहिण सु फेरहि नांहि ॥२१॥
इमि संगत की खुशी होति निति
सतिगुर भी अुर होहिण क्रिपाल।
जिस पर सिज़ख प्रसंन रहहिण बहु
तिस पर गुरू प्रसंन बिसाल।
गुर प्रसीद हुइ३ जिस पर जानहुण
तिस पर तीन लोकपति दाल४।
प्रभू प्रसंन होइण जबि जिस पर
करुना करहिण चराचर जाल ॥२२॥
कंबर एक धरहि५* तन छादन
भूरे वारो६ करहिण अुचार।
सेवहि सदा दे की सेवा,
लावनि समधा७ आदिजि कार।
सो बन बिखै निताप्रति गमनति
इक दिन गयो बंधिबे भार८।
सो न्रिप की दारा९ इस पिखि करि
आई दौर महां बिकरार१० ॥२३॥
सिर पर बार खिंडे चहुण दिश महिण
नगन अंग सगरो जिस केरि।
भैदायक बन महिण निति बिचरहि
१देखके।
२बालक लिआवे।
३प्रसंन होण।
४तिंनां लोकाण दे मालक (प्रभू जी) दिआल हुंदे हन।
५कंबली धारदा है (सज़च निसज़च)।
*पा:-करहि।
६भूरी वाला।
७बालं।
८(बालं दा) भार बंन्हण ळ।
९भाव हरी पुर वाले राजा दी (पाल) इसत्री।
१०भिआनक।