Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ३) ३१९

३४. ।चबींी ते प्रशाद। अशुज़ध बाणी पड़्हन वाले ळ दंड। सिज़खी॥
३३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ३ अगला अंसू>>३५
दोहरा: ++इक दिन बीच दिवान के, गुरू अगारी होइ।
रिदै शबद की भावना१, बोलो सिख अस कोइ ॥१॥
चौपई: साचे पातिशाहु गुर पूरे।
इक मेरी फरिआद हग़ूरे।
नित अुठि बडीप्राति इशनानौण।
पाठ सुखमनी सदा बखानौण ॥२॥
किरतन समैण प्रथम पठि लेअूण।
पुनि सुनिबे महि निज मन देअूण।
अशटपदी इक रहि गई आज।
तबि ही आयो राग समाज ॥३॥
मैण रागीनि संग बहु कहो।
-पाठ करनि थोरो अबि रहो।
भोग सुखमनी लेवौण पाइ।
पीछे किरतन करहु बनाइ- ॥४॥
बहु कहि रहो न कैसे मानोण।
नहीण सुखमनी भोग बखानोण।
साज बजाइ सु राग अुचारा।
करो कीरतन सभा मझारा ॥५॥
तबि मैण कहो -तुमैण तनखाह।
लगवावौण कहि श्री गुर पाह-।
साचे पातिशाहु प्रभु पूरे।
करीअहि मेरो नाअुण हदूरे ॥६॥
श्री मुख ते मुसकाइ बखानां।
भाई सिज़खा! सुनहु सुजाना।
नहि जानहु रागी तनखाही।
गुरबानी महि गावन जाणही२ ॥७॥
हरि जसु सुनिते बात चलावै।


++इथोण सौ साखी दी ११वीण साखी टुरदी है।
१(कीरतन दे) शबद दी भावना वाला।
२गुरबाणी विच (कीरतन) गाअुणा है जिन्हां ने।

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