Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ५) ४३
५. ।रवालसर राजिआण नाल मेल। चंबाल कुमारी॥
४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ५ अगला अंसू>>६
दोहरा: सैलपती मिलि करि सकल,चमू संग समुदाइ।
श्री कलीधर के निकट,
आए अुर हरिखाइ ॥१॥
चौपई: निज निज भेट अगारी धरे।
पद अरबिंद बंदना करे।
कंचन ग़ीन तुरंग शिंगारे।
खरे करे सतिगुरू अगारे ॥२॥
धनुख तुपक अरु सिपर क्रिपान।
देश बिदेशनि मोल महांन।
खड़ग सिपर सभि अंग लगाए।
बैठे निकट प्रभू समुदाए ॥३॥
हेरि हेरि सुंदर गुर सूरति।
मानहु दिपहि काम की मूरति।
कै समेट सुंदरता सारी।
धरो सरीर आनि दुति भारी१ ॥४॥
आदि सूरता गुन समुदाए।
इक थल मैण बिधि रचे टिकाए।
मनहु रूप२ निज धरो सरूपा।
इस प्रकार प्रभु दिपहि अनूपा ॥५॥
तिस छिन जिन जिन देखनि कीने।
इक सम सभि के मन हरि लीने।
चिरंकाल के चाहति चित मैण।
दरशन करो भए सभि हित मैण ॥६॥
कुशल प्रशन प्रभु सभि को बूझे।
अुज़तर दयो अनद अरूझे३।
अपर बारता बहुत चलाई।
१भाव सारी सुंदरता ने मानो कज़ठे होके रूप धारिआ है।
२मानोणरूप भाव सुंदरता ने।
३अनद विच रज़तिआण ने।