Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) ३२३
४६. ।पूरब दी संगत दी सिज़क॥
४५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>४७
दोहरा: पूरब दिशि सिज़खी बहुत, ब्रिंद सिज़ख शरधालु।
पंथ दूर बनहि न मिलनि१, दरशन चाहि बिसाल ॥१॥
चौपई: मिलहि परसपर शबदनिगावैण।
सिमरहि सज़तिनाम गुरु धावैण।
चरन कमल सोण प्रेम लगावैण।
-कबि करुना करि आनि दिखावैण२ ॥२॥
पूरहि कबहि आन करि आसा।
जिम घन चात्रिक हरहि पिपासा।
कबि सूरज सम अुदहि क्रिपाला।
बिकसावहि द्रिग कमल बिसाला ॥३॥
कबि राणकापति बदन३ दिखावैण।
ब्रिंद चकोरनि सिख हरखावैण।
दास त्रिखातुर लखि समुदाइ।
कबहुं सुधा सम बाक सुनाइ ॥४॥
इही कामना अहै हमारी।
सदन बिखै सतिगुरू निहारी४।
सरब भांति की सेवा करैण।
जनम मरन के कलमल टरैण- ॥५॥
इम अभिलाखा ठानि बिसाला।
करी प्रतज़गा निज निज शाला५।
किनहूं रुचिर प्रयंक बनायो।
बहुत दरब तिस पर लगवायो ॥६॥
सुखम सूत साथ बुनवाइव।
आसतरन ले बिसद डसाइव।
रेशम की डोरैण गुंदवाइव।
ग़रीदार गुंफे लरकाइव ॥७॥
१दूर पैणडा होण करके मिलन दा (नमिज़त) नहीण सी बणदा।
२(दरशन दिखाअुणगे)।
३पुंनिआण दे चंद वरगा मुखड़ा।
४........दे दरशन करीए।
५आपो आपणे घर।