Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३२८
३४. ।दातू जी ने श्री गुरू अमर दास जी दे लत मारनी॥
३३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १ अगला अंसू>>३५
दोहरा: इस प्रकार स्री सतिगुरू,
बखशिश कीनि बिसाल।
मेरु करो रंचक हुतो१,
सफल भई तिस घाल ॥१॥
चौपई: क्रिपा द्रिशटि श्री सतिगुर देखि।
करो बूंद ते जलधि बिशे।ि
जिन के सम न गरीब निवाजू।
आपि डुबति सो करे जहाजू२ ॥२॥
बिदा करो इसत्री सो दीनि३।
भयो प्रमुदित कशट मन छीन।
बारबार गुर पदअरबिंद।
करी बंदना लहि सुख ब्रिंदु ॥३॥
अूचे पद को प्रापत भयो।
अपने ग्रिह को मग पुन लियो।
निज सथान महिण कीनि प्रकाश।
बहुत नरनि की पूरति आस ॥४॥
संकट सहत जाइ ढिग जोअू।
कौस छुवति बिन रुज के सोअू४।
लोक हग़ारनि ही चलि आवैण।
कहैण स्राप बर से सफलावैण ॥५॥
महिमा महां देश तिस भई।
पूजहिण परम भावना लई।
अनिक लोक तिन किए निहाल।
कशट मिटाइ अनद बिसाल ॥६॥
सेखौ पुरि* प्रसिज़ध है अबि लौ।
कौणस समीप अहै तिन तबि लौ।
१भाव जो कुछ बी नहीण सी अुस ळ परबत वरगा अुज़चा कर दिज़ता।
२जो आप डुज़ब रहे सन अुहनां ळ (होरनां ळ बचाअुण वाले) जहाज बणा दिज़ता।
३दिज़ती।
४अरोग (हो जाणदा) ओह।
*फीरोग़पुर दे ग़िले विच दज़सीदा है।