Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३३२

पित की वसतु पूत हम मालिक।
अपर किसू के किम हुइ तालिक१-।
इमि बिचार करि कै प्रसथाना।
पहुणचो श्री गुर अमर सथाना ॥२८॥
लगो दिवान बिराजहिण बीच।
दरसहिण मिलै अूचअरु नीच।
को टेकति है माथ अगारी।
को बिनती कर जोरि अुचारी ॥२९॥
को बैठे सिमरहि सतिनामू।
गाइण रबाबी धुनि अभिरामू।
को इक चित है शबद सुनति है।
को मन बिखै बिचार गुनति है२ ॥३०॥
जथा शंभु३ मुनि गन के मांही।
पावन सभा शुभति है तांही।
पिखि प्रताप नहिण रिदै सहारा।
भयो क्रोध ते छोभति४ भारा ॥३१॥
अपर कछू तहिण होइ न सकई।
पहुणच निकट गुर तन को तकई।
रिस करि अुर महिण लात प्रहारी।
जिमि लछमी पति के भ्रिगु मारी५ ॥३२॥
सिंघासन ते गिर करि परे।
ब्रिज़ध सरीर कंप कहु करे।
बहुर संभारि अुठे ततकाला।
गहि दातू के चरन क्रिपाला ॥३३॥
कर कमलन सोण मरदन करे६।

१संबंध। डअरबी, तअज़लक होर किसे दे तअज़लक दी किवेण होवे। भाव किसे दा की तअज़लक।
२विचार करदा है।
३शिव जी।
४दुखी।
५जिवेण भ्रिगू ने विशळ ळ लत मारी सी। कथा-शिव दे पुज़त्र भ्रिगू ने जो मुनी मंने जाणदे हनविशळ
दी छाती विच लत मारी सी।
परसराम इसे दी वंश तोण होइआ सी। महां भारत विच इस दी अुतपती रुद्र दे यज़ग समेण अगनी
तोण इक अनोखी तर्हां दज़सी है।
६हथां कमलां दे नाल मलने कीते।

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