Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३३३
बिनती सहत सु बाक अुचरे।
इक तो सेवा करति रहो हौण।
दुतीए बय ते१ ब्रिज़ध भयो हौण ॥३४॥
यां ते अधिक सरीर कठोरा२।
तुमरो चरन म्रिदुल नहिण थोरा३।
हुयो होइगो कशट महांना।
छिमहु भयो अपराध अजाना ॥३५॥
श्री गुर के सुत हो बडभागे।
मम हित करि इतनो दुख लागे।
तुम को देखि न अज़ग्र खरोवा।
हुतो मान मम सो तुम खोवा ॥३६॥
ताड़न अुचित जानि करि४ मारो।
भलो करो निज दास निहारो।
सेवा अपनी मोहि बतावहु।
करौण सु ततछिन, रोस हटावहु ॥३७॥
सुनि दातू करि क्रोध अुचारो।
इहु कैसे तैण भिंड५ पसारो।
गुरता गादी है हम पाही।
तैण बाणधी सिर पाग सु नांही ॥३८॥
सभिने मुझ को पाग बंधाई।
तैण कैसे करि आप पुजाई।
गुरू भयो तूं आपे आप।
हमै देखि लागति संताप ॥३९॥
इहु पखंड नहिण मोहि सुहावै।
इक संगति आवहि इक जावै।
अति सूधे थे पिता हमारे।
करी सेव तिन की छल धारे ॥४०॥
झूठि साचि तिन ते कहिवाए।
१अुमरा करके।
२(मेरा) सरीर बहुता सखत (हो गिआ है)।
३भाव बहुते कोमल हन।
४ताड़नां दे जोग जाणके (तुसां)।
५पखंड।