Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३३४
बन बैठो गुर, गरब बढाए।
इस थल ते अुठ करि चलि जज़ै।
बहुर न बैठहु दंभ कमज़यै ॥४१॥
पिता हमारे कहि तुझ तांई।
नगरी गोइंदवाल बसाई।
बैठो मालिक तिस को होइ।
हम को नहिण जानो कित कोइ ॥४२॥
अबि सेवा कछु नहीण हमारी।
अुठि गमनहु तूरनता धारी।
सुनि करि सभा न बोल सकै हैण।
करति ढीठता बदन तकै हैण१ ॥४३॥
गुर को डर धरि बैठि रहै हैण।
भले बुरे किस हूं न कहे हैण।बिसमत२ पिखि गुर गौरवताई३।
हौरे४ पुरखन की हरिवाई५ ॥४४॥
तबि लौ पशचम रवि असतायो।
संधा भई तिमर गन छायो।
सभि अुठि अुठि अपने असथाना।
मति बिसमति हुइ कीन पयाना ॥४५॥
श्री गुर अपने सोवन थान।
जाइ बिराजे क्रिपा निधान।
दातू रहो तिसी थल मांहि।
कुछ सेवक जिह संगी आहि ॥४६॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज ग्रिंथे प्रथम रासे दातू गोइंदवाल जानि
प्रसंग बरनन नाम चतुर त्रिंसती अंसू ॥३४॥
१मूंह तकदे हन।
२हैरान होए।
३गंभीरता।
४हौले।
५हलकापन।