Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ३) ३३२
३८. ।दातू जी दे पैर दा दरद हटाया॥
३७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ३ अगला अंसू>>३९
निसानी छंद१: अरध निसा महि श्री गुरू, घर ताग चलै हैण।
ग्रहन करी नहि वसतु कुछ, नहि किसू मिले हैण।
पनही बिन पग कमल ते, मारग प्रसथाने।
रिदै बिचारति-कित चलहि, बैठहि किस थाने ॥१॥
मानव मिलहि न आनि जहि, नहि छूटै धाना।नहि बोलहि, नहि कलहि करि२, कुछ बिघन न ठाना।
एकाकी३ बैठहि कहूं, प्रभु को सिमरै है।
वहिर अुपाधि अनेक है, इक रसु बिसरै हैण४- ॥२॥
एव बिचारति चलति मग, बासर के ग्रामू।
आइ पहूचे छिनक महि, देखो इक धामू।
कोठा हुतो गुपाल को५, तहि केतिक दूरी।
तिस को दर मूंदनि करो, लिखि के बिधि रूरी ॥३॥
-जो दर खोलहि आनि के, तिस दोश लगैहै।
नहीण सिज़ख, तिस के न गुर; नहि श्रेय पगै है६।
बिगरै लोक प्रलोक तिस, हम है न सहाए-।
इम लिखि के दर अूपरे, अंतर प्रविशाए ॥४॥
तिस कोठे महि छपि गए, पदमासन कीना।
लगी समाधि अगाधि ही, एकहि रस भीना।
गोइंदवाल प्रभाति भी, तहि गुरू न पायो।
खोजति सिज़ख अनेक ही, कितहु न दरसायो ॥५॥
श्री अरजन गुर! श्रोन सुनि, मैण भयो अनदे७।
सभि वसतू धन आदि जे, करि अपनि बिलदे।बसत्र बिभूखन पहिर के, करि अुर हंकारा।
गादी पर बैठति भयो, धन लोभ सु धारा ॥६॥
१दातू जी सुणाअुणदे हन।
२कलेश करन।
३इकाणत विच।
४इक दम (अुपाधीआण) विसर जाण।
५गुआले दा।
६मुकती नहीण पावेगा।
७मैण कंनीण सुणके अनद होया।