Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८) ३३३

४८. ।बाबक रबाबी प्रलोक गमन॥
४७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ८ अगला अंसू>>४९
दोहरा: स्री हरिगोविंद सतिगुरू, इस बिधि समैण बिताइ।
सिख संगति आवहि अनिक, मन बाणछति को पाइ ॥१॥
चौपई: बाबक हुतो अगारी गावै।
सदा कीरतन करति सुनावै।
भांति भांति के रागनि साथ।
करहि रिझावन सतिगुर नाथ ॥२॥
अंत समां पहुचो तबि आई।
जानि लई तबि म्रितु नियराई।
श्री हरिगोविंद ढिग चलि आयो।
प्रान अंत बिरतंत सुनायो ॥३॥
करहु खुशी सतिगुरू बिसाला!
गमनौण मैण परलोक सुखाला।
अपनि समीपी सदा रखीजै।
इही आस मम रिदै पुरीजै ॥४॥
श्री नानक जी ढिग मरदाना।
सदाराग को करति सुजाना।
इस जग महि भा बड बज़खात१।
पायो सुजसु बडो अविदात२ ॥५॥
जिम बावन को ले करि संग।
हाथ लशटका वधी अुतंग३।
तिम रावरि की संगति पाइ।
हम आदिक जग महि बिदताइ ॥६॥
भले भाग ते भए* भलेरे।
सदा गुरू के दरशन हेरे।
सुनि श्री हरिगोविंद बखाना।
करो प्रमेसुर आवन जाना ॥७॥
निज निज समैण पयानहि सारे।

१प्रसिज़ध।
२अुज़जल।
३जिथोण बावन दी संगत लैके (अुस दे) हज़थ दी मोटी अुज़ची वज़धी सी।
*पा:-फले।

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