Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३३८

पहुणचे सतिगुर दरस अुदारा।
तहां सिज़ख सेवक हुइण ब्रिंद।
है जिन मसतक भाग बिलद ॥२०॥
इज़तादिक बहु थान बतावैण।
निशचै मति कोइ न ठहिरावै।
तबि सभि मिलि कै कीनि बिचारनि।
बुज़ढा जानहिगो इस कारन ॥२१॥
गुर घर महिण सो सचिव समान।
तिस ढिग चलहु रहहि जिसु थान।
सतिगुर जहिण, सो खोज बतावहि।
अपरन ते कोण करि नहिण पावहि१ ॥२२॥
इमि कहि सिख सभि आणसू ढारति।
अुर बिखाद ते हैण बहु आरति।
जथा क्रिशन भे अंतरधाना।
गन गोपीरुदियंत महांना* ॥२३॥
सभि इकठे हुइ करि तबि चले।
जहिण थल भाई बुज़ढा भले।
धरो प्रसादि अगारी जाइ।
करी बंदना सीस निवाइ ॥२४॥
हाथ जोरि हुइ करि तब खरे।
जसु के सहत बेनती करे।
तुम अरु गुर महिण भेद न कोअू।
जोति एक धारे तन दोअू ॥२५॥
सिज़ख सहाइक परअुपकारी।
सभि संगति इहु खरी अगारी।
सिंधु संदेहनि मगन बिसाला२।
बनहु जहाज आप इस काला ॥२६॥
सिज़खन बिखै अगाअू आप।

१होरनां तोण किवेण बी (खोज) नहीण मिलेगा।
*ऐसे वाक कवि जी द्रिशटांत मात्र वरतदे हन, कदे गुरू जी ळ शिव दी कदे विशळ दी किसे तर्हां
दे रूपक अलकार विच अुपमा देणदे हन। आप दी वाकफी हिंदी ते संसक्रित साहित नाल होण
करके अुस दाइरे तोण बाहर नहीण जाणदे।
२संसिआण रूपी समुंदर विखे बड़े डुज़बे होए।

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