Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) ३३८

४४. ।सिज़खां दे प्रसंग॥
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दोहरा: माईआ१ लब२ सुहंड३ रहि
सतिसंगति नित जाइ।
प्रेम गाइ गुर शबद को
करहि भगति भअु भाइ४ ॥१॥
चौपई: सतिगुर के दरशन हित आयो।
पग पंगज पर सीस झुकायो।
रहि केतिक दिन बूझनि कीनि।
मोहि बतावहु गुरूप्रबीन ॥२॥
सतिसंगति कै गुरु दरबार।
इक तौ जाति कामना धारि।
लेति पदारथ हित गुग़रान।
करहि तिसी ते खान रु पान ॥३॥
इक सिख करि कै धरम कमाई।
सिज़खनि को बरताइ सु खाईण।
सहकामी निशकामी जोअू।
किरतन करति सुनति हैण दोअू ॥४॥
सति संगति करि बैस बितावैण।
नित रावर को दरशन पावैण।
का गति होति अगारी जावैण?
अंतर कितिक सु फल को पावैण?५ ॥५॥
श्री हरिगोविंद तबहि सुनाए।
सति संगति महि दोनो आए।
सहिकामी मरि गंध्रब लोक।
जाइ अनद भुगतहि बिन शोक ॥६॥
तिन ही संग मुकति हो जावै।
जनम मरन को दुख नहि पावै।


१नाम।
२जात।
३टिकाणे दा नाम।
४भै धारके प्रेमा भगती नाल।
५(सकामी ते निशकामी) जो फल पांवदे हन, तिन्हां विच किंना कु फरक है?

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