Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) ३४०

४४. ।खशटमगुरू जी दा वीर रसी रूपक॥
४३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ४ अगला अंसू>>४५
दोहरा: जननी रिदे प्रतीखती,
चहि देखनि मुख चंद।
शसत्र बसत्र संयुकति तिम,
गे श्री हरि गोविंद ॥१॥
चौपई: देखि दूर ते सुत की शोभा।
मनहु अनद की आवति गोभा१।
निकट पहुच करि बंदन ठानी।
आशिख दीनि कही म्रिदु बानी ॥२॥
चिज़त्रति ग़री ममली मढो।
अंतर ते दासी द्रति कढो।
बैठि मोहिरे२ पर ढिग माता।
बोली अनद मेय नहि गाता३ ॥३॥
कहु सुति! संगति केतिक आई?
देशनि के मसंद समुदाई।
ले अुपहारनि मिले कि नांही?
जिम पूरब तुम पित के पाही? ॥४॥
श्री हरि गोविंद सकल बतायो।
ब्रिंद मसंदनि को सभि आयो।
अधिक दूर नहि पहुचे जोई४।
आवति चले इतहु सभि कोई ॥५॥
शसत्र बसत्र अरु चपल तुरंग।
आने सिज़खनि शरधा संग।
अधिक प्रसंन कीनि मन मोरा।
किन हज़थार दीनि, किन घोरा ॥६॥
सैन सकेलैण केतिक दिन मैण।
जोधा अचल रहहि जे रनमैण।
अपर अुपाइन के अंबार।

१केले दे फुल दी कली जो लटकदी सुंदर लगदी है, कली (अ) गंदल।
२मूहड़ा (जो मखमल दी ग़री काढ नाल मड़िआ होइआ सी)।
३अनद मैणवदा नहीण सरीर विच।
४जो बहुते दुराडे हन सो नहीण पहुंचे।

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