Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि २) ३४४
४२. ।भाई भगतू-जारी॥
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दोहरा: जनमो पुज़त्र अनद भा, सभि गातनि के मांहि१।
बधी बधाई बिबिधि बिधि, गाइ करति अुतसाहि ॥१॥
चौपई: सभि गाती मिलि कै तबि आए।
भांति भांति के भनति बधाए।
घर महि अंन सर इक नांही।
घिज़्रति कहां होवहि तिन पाही ॥२॥
सभि गाती लखि कै तिसु हाले।
जिस के नहीण मोल किछु पाले।
निज निज घर ते* करि अुगराही।
घ्रिज़ति अनाज आनते पाही२ ॥३॥
बहु दिन खाइ अधिक ही आयो३।
बालक जनमु सभिनि मन भायो।
माता पिता अधिक हुलसाए।
-जनमति साथ पदारथ आए- ॥४॥
गातीअखिल मिले इक थाइ।
हुतो ब्रिज़ध इक बाक अलाइ।
शुभ लछन बालक जनमयो।
भागन भूर४ भले लखि लयो ॥५॥
जिस ने जनमति सभि अुगराहे।
मनहु भेट आनी इस पाहे।
इस को बंस जु होहि अगारे।
करि है अूपर हुकमु हमारे ॥६॥
हुते सुजान सु जानो तबै।
भगतू नाम कहति भे सबै।
कुछक बडेरी बैस भई जबि।
आदमु पित परलोक भयो तबि ॥७॥
१शरीकाण विच।
*पा:-मे, कर।
२लिआणवदे हन (आपणे) पासोण।
३भाव घिअु अंन।
४बड़े भागां वाला।