Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) ३४५

४९. ।हेम कुंट दी शोभा॥
४८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>५०
दोहरा: पूरब तपसा करनि की,
कहौण कथा गुर पूर१।
पूरब करि हौण अंत लौ,
श्री गुरु कीरति पूर२ ॥१॥
चौपई: मुनी बेश धरि श्री प्रभु आपहि।
अनिक प्रकार तपनि को तापहि।
हेमकुंट परबत बिसतारा३।
झरने झरहि अनेक प्रकारा ॥२॥
निस बासुर जिन महि धुनि भारी।
सुंदर बिमल प्रवाहति बारी४।
कहूं बेग सोण चलहि स ग़ोर।
कहूं भ्रमरका परहि बिलोर५ ॥३॥
फटक६ समान सज़छ जल सुंदर।
नारे७* बहैण मीन गन अंदर।
कहूं फेन८ अुज़जलबिधि रूरं९।
कित सुनीयति धुनि दूर हदूरं ॥४॥
अनिक धातु त चिज़त्रति गिरवर।
पीत, रकत, अंजन के समसर१०।
दुरबा सम बैडूरज जहिवा११।
अनिक भांति की औशधि१२ तहिवा ॥५॥


१पूरे गुरू जी दी पूरबले जनम विखे तपज़सा करने दी कथा कहिदे हां।
२स्री गुरु जी दी कीरती नाल भरी होई कथा पूरन कराणगा अंत तीक।
३विसतार वाला।
४वगदा है जल।
५अुज़जल रंग दीआण।
६बिलौर ।संस: सफटक॥
७नाले।
*पा:-कारे।
८झज़ग।
९दूर दूर तक। (अ) (किते) दूर ते (किते) नेड़े। ।हदूरं = नेड़े॥
१०पीले, लाल, सुरमे वत (काले)।
११हरी मणीआण वरगा जिज़थे घाह।
१२दवाईआण (दीआण बूटीआण)।

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