Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरजग्रंथ (राशि १) ३४८
तिस को त्रास बिलोकि बिसाला।
आनि छपे कोशठ इस काला*।
सुनि ब्रिध ने पुन बाक बखाने।
सभि कौतक तुम नै इह ठाने ॥३३॥
अपनी लील्हा आप निहारहु।
किसे अुपावहु किसे संघारहु।
सभि जीवन के जीव बिसाला।
देहु जीवका तुम सभि काला ॥३४॥
संगति बाकुल अपनी जानो।
दरशन देहु कशट को हानो।
धरहिण कामना पूरन करीऐ।
बिरद क्रिपाल सदीव बिचरीऐ ॥३५॥
बिनती सुनि कै बाक अुचारा।
अुठहु आप अबि खोलहु दारा।
संगति को दरसाअु१ भलेरे।
इह अुपकार हुए सभि तेरे ॥३६॥
सुनि कै ब्रिज़ध बिलद अनदो२।
तूरन अुठो गुरू पद बंदो।
ढाहि ईणटका खोलो दारा।
सभि संगति को तबहि हकारा ॥३७॥
दिखति हुती३, सुनि ब्रिध की आगा।
हरखति भई प्रेम रस पागा।
हुम हुमाइ संगति सभि आई।
भई भीर तहिण थाअुण न पाई ॥३८॥
पद पंकज परसहिण, कर बंदहिण।*दासू ने किहा सी (देखो अंसू ३४ अंक ४३) कि इथोण टुर जाओ। सो गुरू पुज़त्र जाणके ते किसे
नाल ईरखा दा मुकाबला करना जोग ना समझके गुरू जी, सभ समाज छोड़के टुर आए सन। संगत
दा आखा मंनंा बी इक गुरू बिरद है सी। इस करके फेर मुड़ आए,
यथा:-सभि संगति की सुनि करि बिनती। गादी पर बैठे तजि गिनती।
।अंसू ३६ अंक ४९॥
१दरशन दिओ।
२खुश होया।
३(संगत) तज़क रही सी, भाव अुडीक विच सी।