Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३५१

३७. ।पारो जुलका। लालू ळ बखशीशां॥
३६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १ अगला अंसू>>३८
दोहरा: इस प्रकार श्री सतिगुरू, पुरी बिराजे आइ।
भाई ब्रिज़ध केतिक दिवस, रहो निकटसुख पाइ ॥१॥
चौपई: दातू लात बिखै दुख* भयो।
असथि१ बीच ते पीरति थियो२।
गुरू अवज़गा ते दुख पावै।
आइ समीप नहीण बखशावै ॥२॥
-लजा जुत का मुख लै जैहौण।
बैठि सभा शोभा किमि लै हौण-।
सदन बिखै बैठो नित रहै।
कशट लात को दीरघ सहै ॥३॥
हरख न, शोक न, रहैण समान३।
श्री सतिगुर अुर छिमा निधान।
भला बुरा किसहूं न बखानहिण।
सभि पर दया द्रिशटि को ठानहिण ॥४॥
तबि भाई बुज़ढे कर जोरे।
बिदा होइ गमनो ग्रिह ओरे।
गानवान गुर धान सदीवा।
सभि ते अूच अधिक मन नीवा ॥५॥
पारो जुलका डज़ले मांहि४।
परमेशुर सोण प्रेम अुमाहि।
सतिगुर की महिमा को जानहि।
गुरबानी सु बिचरन ठानहि ॥६॥
दरशन की मन पासु घनेरी।
सतिगुर पहि आयहु इक बेरी।
नमसकार करि बैठो पास।
मन महिण दीरघ प्रेम प्रकाश ॥७॥


*पा:-रुज।
१हज़डी।२(दातू) हज़डी विच (पीड़ तोण) पीड़त होइआ।
३(गुरू जी ळ) ना हरख है ना शोक है, इको जिहे रहिणदे हन।
४डज़ले (पिंड) विच।

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