Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३५८

गुपतनि सो ततकाल पुचाो।
खोले द्रिग ग्रिह महिण पिखि आयो१ ॥५०॥
जाइ लाल लालू को दए।
कहति सुजसु बहु बंदन किए।
अपनि ब्रितांत कहो पुरि मांही।
क्रिपा संत! आयो तुम पाही२ ॥५१॥
लालो लाल लिए कर दोइ।
गुरू ढिग आनि रखे तिन सोइ।
पिखिश्री अमर बचन मुख भाखा।
नाम रतन हियरे महिण राखा ॥५२॥
इन को जाह नदी मोण डार।
धरहु न बिवहारहु करि पार३।
लालो गुर की आगा मानी।
फैणके जाइ गहिर जहिण पानी* ॥५३॥
दोहरा: सतिगुर अर गुर सिखन की, महिमा महां महान।
धंन गुरू अरु धंन सिख, जगत अुधारनिवान ॥५४॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज ग्रिंथे प्रथम रासे सिज़खन को प्रसंग बरनन
नाम सपत त्रिंसत्री अंसू ॥३७॥


१देखे कि मैण घर आ गिआ हां।
२हे संत! (तेरी) क्रिपा नाल (इस) शहिर विच तेरे पास आइआ हां। (अ) (अुस) शहिर विच
दा हाल दज़सिआ (ते आखिआ कि) हे संत तेरी क्रिपा नाल तेरे पास आइआ हां।
३ना पिआर नाल सांभो ते ना इन्हां नाल विहार करो।
*कवि जी दा प्रसंग तोण भाव इह है कि गुरसिज़ख ळ, चाहो गुपत प्रगट किसे प्रकार दी शकती वाले
होण, धरम दी किरत नाल निरबाह करना चाहीए। शकतीआण ळ नाटक चेटक तमाशिआण विच नहीण
वरतंा चाहीए, सतिनाम दे सिमरन ते वाहिगुरू प्रापती दे अुदम विच रहिंा चाहीए।

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