Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ७) ३६३

४५. ।युज़ध-जारी॥
४४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ७ अगला अंसू>>४६
दोहरा: आपस महि भिर जाणहि जे, तबहि करहि हज़थार१।
नतु पारे मारे सरब२, परे हग़ार सुमार ॥१॥
सैया: हेरि अफात३ परी कहु दीरघ,
कंबर बेग हटो पिछवाई।
फेरि मसाल बिसाल जलाइ,
कराल पिखो दल को समुदाई।
बीरनि पै बहु बीर परे,
गन घोरनि पै मरि घोरे इथाईण।
-कैसे भए म्रितु ए सगरे?-
बहु सोचति है चित मैण दुख पाई ॥२॥
घाअु भकाभक बोलति हैण
बहु श्रोंति भूतल बीच* बहो।बाणहु कटी, किह जंघ कटी,
किह ग्रीव कटी, धर होइ रहो४।
को गुलकाण लगि प्रान दए
तरफंति किते मुख हाइ कहो।
अूणधे५ परे, इक सीधे परे,
इक टेढे परे, बड घाव लहो ॥३॥
कंबरबेग पठो नर को,
जहि बेगलला, सुधि जाइ सुनाई।
एक तौ सीत ते अंग गए ठरि,
दूसरे है तम को समुदाई।
आपस मैण कटि सैन मरी,
न सरो कुछ, शज़त्र खरे समुहाई।


१जदोण आपो विचीण भिड़ जाणदे हन तदोण हथिआराण नाल (गुरू जी दे योधे वैरी पर मार) करदे हन।
२नहीण तां (= जे ना भिड़न तां) पाला वैरी ळ मार रिहा है।
३आत, बला।
*पा:-बीर।
४किसे दी गरदन कटी गई (गज़ल की) सज़थर होइआ पिआ है (अ) ग्रीव कटी जाण ते धड़ ही बण
रिहा है।
५मूधे।

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