Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३७३

अपनो कछू न लखहि कदाइ।
ममता तजहि पदारथ केरी।
हरिके जानि न+ सुख दुख हेरी१ ॥३८॥
नवधा भगति कही इहु जोइ।
जे करि इक भी प्रापति होइ।
तौ अुधार जन को करि देति।
का संसै हुइ सरब समेत२ ॥३९॥
अपर सुनहु जस३ -प्रेमा भगति-।
जिह सम अपर न सुख दे जगत।
तरुवर फल पूरब हुइ सावा४।
साद बिखै कौरा लखि पावा५ ॥४०॥
पुन पीरो तब लहि तुरशाई६।
ब्रिज़छ बीच ते ले रसु पाई।
पुन पाको होवहि रंगु लाल।
साद पाइ सो मधुर बिसाल ॥४१॥
तिमि परमेशुर प्रेमी होइ।
तिन के लछन इस बिधि जोइ।
प्रथमै रुदन करति चित चाहै।प्रीतम दरशन धरति अुमाहै७ ॥४२॥
-बिछरे हम- यां ते दुख पावै।
दीरघ सासनि ले पछुतावै।
रोमंचति८ हुइ गद गद बानी।
कबि गुन गाइ, कि९ तूशन ठानी ॥४३॥
तबि मुख को सावा हुइ रंग।


+पा:-जन न।
१हरी दे जाण के (अुन्हां दी प्रापती ते वियोग ते) सुख दुख ना देखेगा।
२सारी (भाव नौ प्रकार दी भगती) समेत होवे तां संसा ही किआ है।
३जिवेण।
४पहिले हरा हुंदा है।
५जाणीदा है।
६खटिआई।
७रखदा है अुतशाह।
८रोम खड़े हो जाणदे हन।
९अथवा।

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