Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८) ३७२

पिता सम्रज़थ अुदार बिचरिबो ॥७॥
इह मालिक थे पुज़त्र तुमारे।
सभि बिधि छूछे राखि लचारे१*।कहां करहि अबि देहु बताइ।
जथा जीवका एह चलाइ ॥८॥
पौत्रा मालिक आप बनायहु।
गुरता दे करि बहु बिदतायहु।
चचे शरीकनि को मन जानहि।
किम हरिराइ प्रेम को ठानहि ॥९॥
सुनि श्री हरिगोविंद बखानी।
कोण चिंता चित कीनि महानी।
मतसर आदि ताग अुर दीजै।
नहीण छोभ को मन महि कीजै ॥१०॥
गुर के सिज़ख जि सिदक कमावैण।
तिन परवाहि न, सभि किछ पावैण।
दुहि लोकन के सुख को लेति।
कमी न कोई रहै निकेत ॥११॥
इहु गुर के सुत सभि किछ लाइक।
सकल संगतां चरन मनाइक।
इन को कहां रहै परवाहू।
सरब पदारथ है घर मांहू ॥१२॥
गुरता की दीरघ बडिआई।
सो प्रभु के कर अहै सदाई*।
जो लायक सोई इस पावै।
नहि अुपाइ ते किम बनि आवै ॥१३॥
सुत पौत्रे आदिक प्रिय जोइ।
नहीण समरथ लोयबे कोइ।
प्रथम गुरनि को चितवैण नाहीण२?


१ग्रीब ।फा: लाचार॥
*पा:-पधारे, पुना:-चलारे।
*इह रज़बी भेतसतिगुर ने साफ दज़सिआ है।
२पहिले गुरू साहिबाण ळ याद नहीण करदे।

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