Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति २) ३७२
४९. ।हुसैनी बज़ध गुपाल दी फतह। जुझार सिंघ जनम॥
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दोहरा: भेजो सभिहिनि को जबै,
मिलो गुपालहि जाइ।
आशै कहो सुनाइ करि,
चलहु मिलहु गिरराइ ॥१॥
चौपई: तोहि भले हित मोहि पठायो।
यां ते धरम हेतु करि आयो१।
नहि बिगरहिगे संग तिहारे।
करी बात मैण अनिक प्रकारे ॥२॥
जे करि धरम जाहिगे हार।
श्रीसतिगुर मैण दीनि मझार।
तअू फते तेरी तबि होइ।
धरम हीन रिपु हारहि सोइ ॥३॥
इज़तादिक न्रिप को समुझायो।
गुर को नाम सुनति हुलसायो।
कहति भयो जे प्रभु बिच आए।
तौ संदेह नहि मुझ बनि आए ॥४॥
संगतीआ सिंघ के संग भयो।
वहिर निकसि गन दल युति अयो।
भीमचंद अरु जहां क्रिपाल।
तहां आनि करि मिलो गुपाल ॥५॥
बैठे सभि मसलत कौ कीनि।
खान हुसैन संग बड लीनि।
दस हग़ार दीजै धन आनि।
तौ मेलहि इह निशचै जानि ॥६॥
सुनि गुपाल बोलो धन एतो।
हौण नहि देति लरै रिपु केतौ२।
जबि क्रिपाल हुइ बैठसि नारो।
भीमचंद के संग बिचारो ॥७॥
१धरम (मैण जामनी) विच देके आइआ हां।
२इतना धन मैण (कदे) नहीण दिआणगा (भावेण) वैरी कितना ही लड़े।