Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ३) ३७४

४१. ।शहीद॥
४०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ३ अगला अंसू>>४२
दोहरा: अुज़ग्र बचन सुनि स्राप के,
थरहर कंपहि जीअ।
करहि न बिज़प्रै१ बहुर कबि,
शरधा धरि करि हीअ ॥१॥
निशानी छंदु: होति तथा लगर बहुत,
गन चून पकावैण।
ब्रिंद लांगरी लगे रहि,
कबि थुरन न पावै।
खाइ हग़ारहु नरुसदा,
सुनि सुनि जसु धावैण२।
को दाता अस गुर बिना,
सभि को त्रिपतावैण ॥२॥
दे करैण* नर रैन दिन,
तिम ही बरतावैण।
छुधिति न रहै अनदपुरि,
आनद ते खावैण।
सभि जग महि दुरभिछ परो,
बहु डुली३ लुकाई।
दुख भुख हरता गुरू लखि,
आवहि शरणाई ॥३॥
+इक दिन कलीधर थिरे,
सिदकी सिख तीरा।
मुहकम सिंघ अर दया सिंघ,
हिंमत सिंघ धीरा।
इज़तादिक कर जोरि कै,
अस गिरा बखानी।


१अुलट।
२भाव धाके आअुणदे हन।
*पा:-छकैण।
३डावाण डोल होई।
+सौ साखी दी इह २४वीण साखी इथोण चज़ली है।

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