Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) ३७८५५. ।संगति विज़च विचार॥
५४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>५६
दोहरा: संमत सज़त्राण सै बिते, पुन अूपर इक बीस१।
चेत सुदी चौदश हुती, वार नद रजनीश२ ॥१॥
चौपई: श्री हरिक्रिशन बाल बय धारे।
बहु कारन को रिदे बिचारे।
परम धाम बैकुंठ पधारे।
जो सतिसंगति के बहु पारे ॥२॥
तीन दिवस पुन बीते जबिहूं।
मिले मसंद आदि सिख सभिहूं।
पुशप बीनिबे कारन३ गए।
शोकाकुल४ गुर सिमरति भए ॥३॥
देखि रहे कुछ हाथ न आए।
भसम सकेलति सभि बिसमाए।
तरनि तनूजा नीर मझारी५।
सकल मेल करि बंदन धारी ॥४॥
सभि संगति पुन माता पास।
बैठति बोलति शोक प्रकाश।
इक दुइ बारी जै पुरि नाथ।
बैठो आइ बंदि करि हाथ ॥५॥
क्रिशन कुइर कहु बंदिन कीनि।
कहि बहु रीति धीर अुर दीनि।
गुर सभिहिनि के अतिशै पारे।
दरशन देति अनिक दुख टारे ॥६॥
पुरि महि घर घर कीरतिहोई।
हिंदू यमन६ निवैण जिन दोई।
मेटनि स्राप भ्रात को कहो।


१सं: १७२१।
२बुज़धवार। रजनी+ईश+नद = रात दे ईशर चंद्रमा दा पुज़त्र = बुध॥
३फल चुंन लई।
४शोक नाल बेचैन।
५सूरज दी पुज़त्री (= जमना) दे जल विज़च।
६मुसलमान।

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