Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४)३७९

४९. ।जहांगीर दा सज़दा। गुरू घर विच मसलत।॥
४८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ४ अगला अंसू>>५०
दोहरा: डेरा करि कै सुधासर,
खां वग़ीर बुधिवान।
इक नर सुधि हित गुरू ढिग,
पठो सु बाक बखानि ॥१॥
चौपई: करहु बंदगी गुरू अगारी।
पठो शाहु मैण पास तुमारी।
रावक की रजाइ जिस काला।
दिहु दरशन मुहि करहु निहाला ॥२॥
गयो सु सिज़खनि पास सुनायो।
तिनहु जाइ करि सकल बतायो।
श्री हरि गोबिंद सुनति बखाना।
आज करहु बिसराम महाना ॥३॥
हुइ है मेलि हमारो काली१।
संधा समै करहु इस ढाली।
गुरू दे ते रसद पुचावहु।
जेतिक नर, प्रथमहि पिखि आवहु ॥४॥
देहु तुरंगनि के हित दाना।
त्रिंनि आदि सेवा जे नाना।
सुनि करि हुकम मसंदनि तबै।
कहो जथा, कीनिस तिम सबै ॥५॥
क्रिपा अपनि पर लखि करि आछे।
सकल सैन जुति लीनसि बाणछे।
खान पानकरि सुख को पाए।
गुरू सुजसु करि निस सुपताए ॥६॥
प्रात होति अंम्रितसर न्हाए।
हरिमंदिर अरदास कराए।
धरि शरधा निज संगी संग२।
करहि सराहनि के सु प्रसंग ॥७॥


१कज़ल ळ।
२आपणे साथीआण नाल।

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