Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३८२

जीवति रहो सरब सुख पावो।
वाहिगुरू अुर बिखै बसावो*।
ग्रिहसत बिखे सुख लहो सुखारे।
जथा करन तप बिपन मझारे१ ॥३७॥
दुइ छीणबे मज़लार सहारू।
परे चरन लखि गुर सुखकारू।
तिन प्रति करति भए अुपदेश।
सिज़खन सेवा करिहु विशेश ॥३८॥
सीणवहु बसत्र अंग पहिरावो।
हुइ मलीन जे, मैल गवावो।
अुज़जल आछे करि करि देहु।
अुर२ अुज़जलता पुन तुम लेहु ॥३९॥
गुर के संग गंढ तब परै३।
सति संगति मन की मलु हरै।
शरधा धरिहु करहु गुर सेवा।
सिमरहु नाम जु देवनदेवा४ ॥४०॥
इक पाधा बूला जिस नामु।
नमो ठानि आयो गुर सामु५।
कहति भयो सेवा नहिण होइ।
दिज को जानि कराइ न कोइ ॥४१॥
जिस प्रकार हुइ मम कज़लान।
करो आप अुपदेश बखान।
करो बचनपठि सतिगुर बानी।
कीजहि कथा प्रेम को ठानी ॥४२॥
सति संगति महिण करिहु सुनावनि।
गुरमति सिज़खन को सिखरावनि।


*पा:-समावो।
१वाहिगुरू ळ हिरदे विच वसा के ग्रिहसत दे सुखां विच बैठे रहिंा ऐसा ही जैसे बन विच तप
करना।
२रिदे दी।
३तां प्रीती पवेगी।
४देवतिआण दा भी प्रकाशक है।
५गुरू शरन।

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