Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) ३८५

५३. ।त्रिबेंी विखे निवास॥
५२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>५४
दोहरा: सगरे सिज़ख१ हकारि कै, दियो ब्रितंत सुनाइ।
धरहि धरातल जनम को, श्री गुरु२ आइसु पाइ ॥१॥
तुम भी चलि सभि देश मैण, धरहु सु नरनि सरीर।
छज़त्री धरम निबाहि कै, जुज़ध बिखै बनि बीर ॥२॥
सैया: केस रखो कछ* अूपर बेस मैण३
आयुध धारि मचाइ लराई।
शज़तनि जीतहु तौ थित पावहु
राज करहु सुख लै समुदाई।
नाहित जुज़ध मैण क्रज़धति है
दिहु प्रान, लहो ब्रहम लोक सुथाई४।
श्री गुर देव५ को सेवनि कै
अहंमेव बिना दिहु बंध नसाई ॥३॥
सिज़खनि सोण इम कोमल भाखि
महांरथ६ है सभ को सुखदाई।जोग महां तप साधनि आदिक
है इन को फलु सो लिहु पाई।
चीत लगावहु मोहि बिखै,
मन संग रहो, पुन ना भरमाई।
श्री सतिनाम सदा सिमरे
कलि काल मैण, अंत सभै मिलि जाई७ ॥४॥
सैया छंद: दुशट दमन निज रूप रमन सद८,
इम सिज़खन को तप फल दीनि।
रहित सहित हुइ अुर गुरु सिमरन,


१चेले।
२भाव अकाल पुरख दी।
*पा:-केसहि के कछ।
३अुपरले वेस विच केस ते कज़छ रज़खो।
४स्रेशट थां ब्रहम लोक लवो।
५अकाल पुरख ळ।
६गूड़्ह अरथ, महां सिज़धांत।
७अंत ळ तुसीण सारे मेरे विच मिल जावोगे।
८सदा सुंदर रूप।

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