Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 38 of 626 from Volume 1

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ५३

अरथ: (प्रशन) श्री गुरू जी दा स्रेशट जस लाल वाणू (इज़क) सुंदर रतन है, जो
सिज़खी (रूपी) पहाड़ दे (अुज़चे) थांई (लझदा) है, मेरे (पास) साधन रूपीपैर नहीण हन, मैण (मानो) पिंगला हां अुपर कीकूं चड़्हां* ॥२९॥
(पर मैण इह) चाहुंदा (ग़रूर हां कि) अपणी मति ळ (गुरू जस रूपी लालां दे
मणके) प्रो के पहिराणवा ते इसळ शिंगार ला दिआण, प्रेम रूपी धागे विच
(गुरू जस रूपी खिज़लरे रतनां ळ) बंन्हके, जो लोक ते प्रलोक (दोहीण थांईण)
सुहणा ते पविज़त्र है ॥३०॥
(अुज़तर) गुरू दी क्रिपालता (रूपी) असवारी प्रापत करके सिज़खी दी अुज़चता (जो
परबत रूप है) पर चड़्ह जावीदा है, (ऐअुण) मेरा मनोरथ पूरन हो जाएगा,
(जो) मैण गुरू जी दे चरनां ळ दिने रात सेवाण ॥३१॥
इस करके मैळ (हुण) भरोसा है कि ग्रंथ (मेरा) सारा संपूरण हो जाएगा (हां, जिन्हां
सतिगुराण ने) तुरकाण दे राज दे तेज रूपी (भारे) बन ळ दावा अगनी (वाणू
लगके) इक वेर तां सुवाह करके मिटा दिज़ता है, (मैळ भरोसा है कि ओह
मेरे कंम विच पैं वाले विघनां दा तेज हरि लैंगे) ॥३२॥
श्री गुरू नानक देव जी ने नराण दे तारने लई जगत (रूपी) खेत विच सिज़खी दी वेल
बोई, दूसरे (नौण) सतिगुराण ने (समेण समेण) अुपदेश (रूपी) जल दे दे के ओह
(वल) चंगीतर्हां पाली, (अुस वेले ळ) सतिनम दा सिमरन (रूपी) स्रेशट
फुज़ल पिआ, जिस ळ ब्रहम गान (रूपी) मनोवाणछत फल (लगा), जिसळ
श्री कलगीधर जी ने कई वार जंग रचके अनेक जतनां नाल (बचाइआ ते)
प्रतिपालिआ।
।ालसा दा रूपक॥
पंथ खालसा सुरतरु बोवा।
सतिगुर तप दिढ मूल खरोवा।
सिख संगति छाया जिस पाइ।
दुहि लोकन सुख को अुपजाइ ॥३५॥
कलप लता सिज़खी गुन भोवा।
तिस को आस्रै दिढ इह होवा।
सभिहिन को अभिबंदन कै कै।
करोण ग्रिंथ चिंता अुर खै कै ॥३६॥
सुरतरु = कलप ब्रिज़छ।


* अहो-पद दा-अहौण-अरथ करीए तां अुज़परला अरथ ठीक है, -अहो-पाठ करके फिर अरथ
ऐअुण लगदा है-अहो पिंग किम चढवअु तेरे:-ओह हो! मैण तां पिंगला हां (हे परबत) तेरे अुपर
कीकूं चड़्हां ?

Displaying Page 38 of 626 from Volume 1