Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८) ३९७५८. ।सच खंड प्रवेश॥
५७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ८ अगला अंसू>>५९
दोहरा: वहिर खरे जोधा रहैण, निस दिन महि समुदाइ।
चहुदिशि भजन अखंड है, शबद राग जुति गाइ ॥१॥
चौपई: चहुंदिशि कोशठ के परवारे।
भई संगतां आनि हग़ारे।
भाअु सभिनि१ के भयो बिसाला।
सिमरहि सतिगुर प्रभू क्रिपाला ॥२॥
गुर आगवन सुरनि सुध पाई।
ब्रहमादिक मन मोद बढाई।
गीरबान२ सभि चढे बिबान।
तूरन आइ थिरे असमान ॥३॥
कमलासन आरूढि मराला।
चंद्रचूड़ चढि ब्रिखभ३ बिसाला।
लै करि अपने गन४ समुदाया।
आवति भे जै शबद अलाया ॥४॥
तथा पाक सासन५ चलि आयो।
बायू, बंन्ही अनद अुपायो।
दादश दिनकर६ मूरति धरी।
आइ निसापत७ थिरता करी ॥५॥
पौं अुणंजा, रुज़द्र इकादश८।
ब्रिंद अपसराण, नाचति हसि हसि।
बिज़दाधर किंनर चलि आए।
गोरख आदि सिज़ध समुदाए ॥६॥
करति मंगलाचार बिलदै।
गुर प्रलोक हुइ मिलति अनदै।१प्रेम।
२देवते।
३शिवजी चड़्ह के बैल ते।
४गण।
५इंदर।
६सूरज।
७चंद्रमां।
८गिआराण शिव।

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