Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४००
पुन गुर तेईआ ताप हकारो।
तिस को बालक सम तन धारो।
चरन जंजीर डार करि दीन।
गर महिण तौक पाइबो कीन ॥८॥
जुग हाथन महिण डारि हथौरी।
लोह पिंजरे महिण तिस ठौरी।
पाइ बीच निज पौर टिकायो।
कहो गुरू इन त्रास न पायो१ ॥९॥
आनि अवज़गा पुरि महिण कीनि।
बिधवा को बालक हति दीन।
हमरो करिओ प्रण नहिण जानो।
मातहिण पितहिण पिखति२ सुत हानो ॥१०॥
एक रोग को होइ सग़ाइ।
पुन हमरे पुरि कोइ न आइ।
रहै पिंजरे महिण इहु परो।गोइंदवाल निडर हुइ बरो ॥११॥
इमि कहि अपने पौर रखायो।
केतिक मासन समां बितायो।
गुर बच संगल संग रहो है३।
छुधति अधिक न अहार लहो है ॥१२॥
दुरबल अंग होइ बहु गयो।
गुर सिज़खन को बंदति भयो।
-को आवहि ऐसो अुपकारी।
मोहि मुचावहि४ करुनाधारी- ॥१३॥
निकट कदीमी५ सेवक जोइ।
लखहिण दुखद हित कहैण न सोइ६।
डज़ले ग्राम बिखै सिख जेई।
१इस ने (साडा) डर नहीण मंनिआ।
२मात पिता दे देखदिआण।
३गुरू जी दे बचन (रूपी) जंजीर नाल बंन्हिआण रहिआ
४छुडावे।
५पुराणे।
६दुख देवा जाणके अुस दे भले लई (गुरू जी पास) नहीण कहिणदे।