Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४०३

त्रिपतावहु अहार जहिण लहो।
घरी मात्र हम ठहिरनि करैण।
पुन हम चलैण तोहि संग धरैण१ ॥२८॥
तहिण धोबी इक बसत्र पखारहि।
जल निचोर शुशकनि को डारहि।
जबि लालो ते आगा लीनि।
ततछिन चढिबो तिस तन कीनि ॥२९॥
भयो कंप धोबी गिर परो।
सरब सरीर पीरबो२ करो।
रुधिर३ निचोर लीनि तबि ऐसे।
बसत्र निचोरति जल को जैसे ॥३०॥
तहिण घट फोरि ठीकरा भरो।
लालो निकट लाइबो करो।
लगो दिखावन लेहु निहार।
इस प्रकार को मोरि अहार ॥३१॥
चिरंकाल ते छुधति४ बिसाला।
पान करौण त्रिपतौण इस काला।
क्रिपा आप की, मोहि बचायो।
बड बंधन ते खोलि* मुचायो५ ॥३२॥
सुनि अर पिखि लालो अुर त्रासा।
-गहो पिंजरे बिखे निकासा६।
बडी बलाइ न मैण कुछ जाना।
संग क्रर करमां अबि आना७- ॥३३॥कहनि लगो चलि हटि गुर पौर८।
मैण न लिजावौण अपनी ठौर।

१तैळ नाल करके।
२दुखी, पीड़ित।
३दुखी, पीड़ित।
४भुज़खा।
*पा:-बोलि।
५छुडाइआ।
६फड़िआ होइआ सी, पिंजरे विचोण (मैण) कढाइआ।
७भिआनक करमां वाला आपणे नाल आणदा है।
८गुरू जी दे दरवाजे।

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