Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन १) ४०१

अपनी ऐणठ सुजसु बिरधावहु।
इह तुम बिखै रीति बहु खोटी।
करति रहे, किन प्रथम न होटी ॥४३॥
आगे को चहीअहि तुम ऐसे।
तनुजा तुरक न दीजहि कैसे।
सुनति नरिंदनि रिदे बिचारी।
-गुरू अुपदेश हमहु जसु कारी ॥४४॥
देश बिदेशन महि अपकीरति।
सभि रजपूतनि की बिसतीरति-।
इज़तादिक बहु दुहन बिचारी।
गुर हग़ूर तबि सपथ अुचारी ॥४५॥
जो रजपूत बीज शुभ होइ।
तनुजा तुरक न दै है कोइ।
श्री गुर! तुमरो भयो पितामा।
सुजसु आज लगि तिन अभिरामा ॥४६॥
राजे बावन को मुचवाइ।
वहिर गालियर ते तबि आइ।
तुम भी अहो तिनहु के पोते।
रण महि महां बीर रस पोते१ ॥४७॥
सुने जंग रावर के भारे।
करो शोक तुरकाने सारे।
श्री गुर क्रिपाद्रिशटि तबि कीनि।
सिपर खड़ग मंगवावनि कीनि ॥४८॥
बखशी जै सिंघ को हरखाइ।
ले कर महि पग सीस निवाइ।
तरकश धनुख देखि करि पीन।
न्रिपति अजीत सिंघ कहु दीन ॥४९॥
गुर ते ले बखशिश हरखाए।
नमो करी हुइ बिदा सिधाए।


१बीर रस नाल भरे होए ।पोते=प्रोते॥।
(अ) बीर रस दे जहाग़ हो।
।संस:, पोत=जहाज॥।

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