Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४०६

गुर दरशन को इकठे आवहु ॥६॥
तबि पारो ने लिखि परवाने।
पठे पुरनि जहिण जहिण सिख जाने।
सुनति हुकमनामा गुर केरा।सिज़खन के चितचाअु घनेरा ॥७॥
रहे अुडीकति पुन सभि कोए।
पहुणचहिण गुर ढिग दिवस बसोए।
दिन प्रति वधति रहति बडभाअु।
गुरदरशन को चौगुन चाअु ॥८॥
बीती सिसुर१ बसंत प्रकाशा।
सुमन सु बन अुपबनहिण बिकासा२।
बहुती अुसन३ न सीतलताई।
चलन पंथ को है सुखदाई ॥९॥
जहिण जहिण सतिगुर के सिख ब्रिंदे।
दरशन को अुमगे आनदे।
बंधे टोल संगतां आई।
चहुण दिश ते वसतू गन लाई ॥१०॥
आनि सभिनि गुरु दरशन हेरा।
मेला मिलि कै भयो बडेरा।
जथा चकोर होइ समुदाया।
श्री सतिगुर निसपति४ दरसाया ॥११॥
गोइंदवाल बिसाल सु भीर।
दरसैण वार न पावहिण तीर५।
पाइन पास अुपाइन धरि धरि।
आवहिण जाहिण बंदना करि करि ॥१२॥
सिख अनेक दे को लागे।
करहिण पाक सिध अुर अनुरागे।


१पत झड़ रुज़त।
२फुल बणां ते बगीचिआ विच खिड़े।
३फुल बणां ते बगीचिआ विच खिड़े।
४चंदरमा।
५अुरार पार दा कंढा नहीण पाईदा संगत बिअंत जुड़ी। (अ) नजीकहोके दरशन करन दी वारी
नहीण मिलदी।

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