Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ७) ४०६
५१. ।कासम बेग बज़ध॥
५०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ७ अगला अंसू>>५२
दोहरा: मारो कंबरबेग जबि, भयो कशट चित पीन।
ललाबेग आणसू गिरे, प्रिय भ्राता बहु चीन ॥१॥
पाधड़ी छंद: तिह सिमरि सिमरि गुन कहि बिसाल।
गुग़रो बिलद अचरज कराल।
मन लखै कौन इह रीति होइ।
गिरि भार धरै नर हाथ कोइ१ ॥२॥
लशकर बिसाल मम संग आइ।
बरिआम बीर बहु ब्रिंद धाइ।
जो शाहु निकटि आछो कहाइ।
जिन करे जंग नित भिरनि चाइ ॥३॥
बड दरब चाकरी लेति नीत।
बहु लखहि दाइ अरु जंग रीति।
इत आइ सरब ने दीनि प्रान।
गुर निकटि सैन भट अलप जान ॥४॥
इह भयो कहां, नहि जानि जाइ।
किम मरे सरब तनघाइ खाइ।
अबि जीत आस किस के भरोस?
को करोण जतन? नहि होति होश२ ॥५॥
लघु भ्रात हुतो कंबर दनाइ।
सभि लरन भेत देतो बताइ।
असु कहै कौन -हे भ्रात- आइ।
तुझ बिना मोहि नहि लरन दाइ ॥६॥
सुणि कासमबेग सु शमसबेग।
बोलै बिलद गहि हाथ तेग।
इह नहीण लाइकी तोहि केर।
जबि चढो शाहु ते हुइ दलेर ॥७॥
बिच सभा तेग बीड़ा अुठाइ।
अुमराव ब्रिंद देखति बडाइ।
१(जिवेण) कोई नर हज़थ ते पहाड़ दा बोझ धारे।
२भाव अकल नहीण फुरदी।