Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) ४०७

५३. ।मजळ दे टिज़ले वाले संत ळ अुपदेश॥
५२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ४ अगला अंसू>>५४
दोहरा: पायो अवसर मिलनि को, गमने हग़रत पास।
अधिक अदब ते बंदगी, निव निव करति प्रकाश ॥१॥
चौपई: नम्रीहोति गए जबि नेरे।
जहांगीर इन दिशि द्रिग फेरे।
देखति बोलो शाहु सुजान।
खां वग़ीर! ढिग आअु बखान१ ॥२॥
श्री जग गुरु अरजन के नद।
नाम जिनहु श्री हरि गोविंद।
गुरता गादी पर अबि बैसे।
आए किधौण, न कहु सुधि कैसे? ॥३॥
खां वग़ीर कर जोरि अगारी।
चातुरता जुति गिरा अुचारी।
बय महि अलप, ब्रिज़ध बुधि मांही।
डील बिलद और अस नांही२ ॥४॥
प्रिय मूरति सूरति अति सुंदर।
साहिब करामात गुन मंदिर।
करो बिलोकनि जबि हम जाइ।
तुमरी दिशि ते कहो सुनाइ ॥५॥
क्रिपा द्रिशटि को ठानि महाना।
जिम हम भनो सुनो तिम काना।
हुइ असवार आप चलि आए।
आनि सु अुतरे मजळ थांए ॥६॥
सुनति शाहु बहु भो प्रसंन।
कहो वग़ीर खान को धंन।
मुझ ढिग करति हुते नर चारी३।
-गुरू न ऐहैण निकट तुमारी ॥७॥
किंचबेग अरु खांन वग़ीर।


१नेड़े आके दज़स कि।
२होर इन्हां जेहा कोई नहीण।३चुगली।

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