Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ३) ५२

६. ।नैंे दा टिज़ला॥५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ३ अगला अंसू>>७
दोहरा: केसर, एला जुगम बिधि१,
खारक, दाखनि ब्रिंद।
खोपा, गरी, बिदाम की,
आने सकट बिलद ॥१॥
चौपई: जहि कहि ते घ्रित सैणकर मने२।
तिल, जव, तंदुल ले करि घने।
संचै भयो अनदपुरि आइ।
चहैण सु वसतू३ सकल अनाइ ॥२॥
सरब समिज़ग्री होयसि तारी।
लियो बिज़प्र को निकट हकारी।
आशिख दे करि बैठो पासी।
श्री कलीधर गिरा प्रकाशी ॥३॥
दिजबर! सुनो जु आइसु दई।
सकल वसतु इकठी हुइ गई।
हमनि करनि४ पठि मंत्रनि संग।
तिथ शुभ पिखि तुम करहु अभंग५ ॥४॥
केशव कहो बिधान करैहौण६।
लाख दरब की दछना लैहौण*।
जेतिक बिधि बेदोकति अहै।
तंत्रोकति शासत्र महि कहै ॥५॥
जथा करम सगरी करिवावौण।
महां अरंभ सरब पुरवावौण।
बिदति होनि कैधौण हुइ नाही।
इह सभि शकति आप के पाही ॥६॥

१लाचीआण दोहां तर्हां दीआण(छोटीआण, वज़डीआण)।
२सैणकड़े मन।
३सारी चाहीदी वसतू।
४हवन करना।
५इक रस।
६(सभ कुछ) विधी सहित कराणगा (पर)।
*धन दे याचक (पंडतां) प्रती श्री मुख वाक इह हन:-लागि फिरिओ धन आम जितै तित लोक गयो
परलोक गवायो ॥ ३ ॥ ।३३सवये॥।

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