Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) ५३६. ।दो सगाईआण कज़ठीआण होणीआण॥
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दोहरा: कहनि सुननि बहु तबि भयो, ठहिरो अंति मतंत।
नहि नाता हम लेइ हैण, हंकारी कुलवंत१ ॥१॥
चौपई: दिज नाई सुनि जुगल बिसूरति।
जनु चिंता इह धारी मूरति।
कहि बहु रहे नहीण गुरु मानी।
कहिबो संगति को प्रिय जानी२* ॥२॥
जबि श्री अरजन एव अुचारा।
हमहि मिलहि को निरहंकारा।
डज़ले की वासी सिज़ख बैसे।
सुनो बखानो सतिगुर जैसे ॥३॥
स्री गुरु अमरदास के पासि।
भाई पारो भयो प्रकाश।
जनमो तिस के बंस मझारे।
नाम नराइंदास अुचारे ॥४॥
क्रिपा द्रिशटि सिज़खनि दिश जानी।
निज मन महि गिनती तबि ठानी।
-सुता सपत संमत की मेरी।
नाता देअुण जि नहि गुरु फेरी ॥५॥
निरहंकार गरीब जि होइ।
दे नाता हम लैहैण सोइ।
इम स्री गुरु ने बाक बखाना।
सफलहि सोइ होइ नहि हाना ॥६॥
कहौण अबहि बिच सकल समाजा।
श्री सतिगुरुराखहि मम लाजा।
इस जग महि तौ अहै सुहेली१।
१कुल वाले हंकारी दा।
२पिआरा जाणिआण।
*दिज़ली दी संगतां दा लिखिआ, ते दीवान विच जुड़ी संगत दा आखिआ सतिगुर जी ने नहीण
मोड़िआ। जाणदे सन कि इक राजसी आदमी नाल विगाड़ सुखदाई नहीण पर मोईआण सुरतां विच
जानां पाअुण वाले, मर मिटी प्रजा ळ असूल प्रसती सिखाअुण वाले, संगत ळ सनमानं वाले
सतिगुरू ने संगत दा किहा प्रवान कीता ते किसे तौखले ते भै तोण भैभीत नहीण होए।