Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ३) ४१३

४६. ।मेले ते संगत रोक रखी॥
४५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ३ अगला अंसू>>४७
दोहरा: +श्री कलीधर एक दिन करि तन सौच शनान।
बसन बिभूखन बर धरे पहिरे शसत्र सुजान ॥१॥
चौपई: सिर पर सतिगुर शाल१ सजाई।
सुंदर दरशन अधिक सुहाई।
आनि सिंघासन अूपर बैसे।
सुर गन महि सुरपति२ है जैसे ॥२॥
लगो दिवान महान सुजाना।
चहु दिशि महि सिख थिर मतिवाना।
हुकम करो संगतिसमुदाई।
दरशन हित बहु थल ते आई ॥३॥
मनोण कामना आइ सु पावै।
गयो मेवड़ा सभिनि सुनावै।
तबि संगति सगरी चलि आई।
दरशन करति भई समुदाई ॥४॥
अधिक भीर होई चहु फेरे।
सिज़ख सिखंी मिले घनेरे।
बैठे शोभति गुर तिस बेरं।
गन जज़छन महि जथा कुबेरं ॥५॥
आणख पांखरी कमल सरीखी।
बडी भीर संगत दी दीखी।
श्री मुखि ते फुरमावनि करो।
अबि कै मेला दीरघ भरो ॥६॥
दिन दै तीन कि रोक रखीजै३।
सिज़ख सिखंी जानि न दीजै।
हुकम सुनोण सभिहूंन सुनाए।
बैठे भट रोके समुदाए ॥७॥
करि दरशन घरि चहिति सिधायो।

+इह सौ साखी दी तीसरी साखी है।
१कज़ढे होए पशमीने (दी दसतार) ।फा:, शाल॥।
२इंद्र।
३रोक रज़खो (संगत ळ)।

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