Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 404 of 626 from Volume 1

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४१९

लखि गुर अुचित प्रेम ते भरे ॥४१॥
रामदास पुन चले अगारे।
आए चौणक नखास१ मझारे।
बिन रुति ते तहि आणब बिकाइण।
अति सुंदर पिखि रहो लुभाइ ॥४२॥
-लवपुरि की इह वसतु अजाइबु।
अरपन अुचित++ सरस गुर साहिब२।
रिकत३ हाथ बडिअनि ढिग जाना।
इस ते परे आन को हाना ॥४३॥
अदभुत बिन रुत फल लै जै हौण।
अरपि अगारी बंदन कै हौण।
बहु दिन के बिछरे दरसै हौण।
पिखि सरूप लोचन त्रिपतै हौण- ॥४४॥
ढिग हुइ बूझो वेचन वारो।
कहहु मोल इहु, फल बिवहारो४!
एक रजतपण मोल कियो है।
सो दे करि निज हाथ लियो है ॥४५॥
करे शीघ्रता गमनो फेर।
गोइंदवाल पंथ को हेरि।
बढो प्रेम श्री सतिगुर पूरन।
मिलोचहै चलि करि मग तूरन ॥४६॥
चलति चलति दिनमनि५ असतायहु।
ग्राम बिखै बसि निसा बितायहु।
बडी प्रभाति अुठे पुन चले।
चित महिण पास अधिक -गुर मिले- ॥४७॥
भैरोवाल ग्राम तबि आए।
गोइंदवाल रहो निकटाए।


१मंडी ।अ: नखास॥।
++पा:-अपर न अुचित = हर कोई लैक नहीण (स्रेशट गुरू जी तोण बिनां)।
२गुरू साहिब जी ळ भेटा करने जोग हैन।
३खाली।
४हे फल वेचं वाले! इस दा मुज़ल कर।
५सूरज।

Displaying Page 404 of 626 from Volume 1