Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८) ५४
७. ।सिज़खां दीआण अुपहाराण॥
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दोहरा: बीत गए खट मास इम, बासे पुरि करतार।
दीपमाल मेला मिलो, गन नर नहीण शुमार ॥१॥
दूर दूर ते भूर सिख, पूरि कामना हेतु१।
आइ हग़ूर निहारते, शरधा प्रेम समेत ॥२॥
चौपई: इस प्रकार गुर दिवस बिताए।
दुशटनि हनि गुर संत सहाए।
बडी भीर नित पुरि करतारा।
आइ जाइ नर नहीण शुमारा ॥३॥
बड पूरब ते२ संगति आवै।
तहि ते वसतु अजाइब लावै।
जे सलितापति टापू वासी।
आइ जतन करि सतिगुर पासी ॥४॥
तिम ही दज़छन के समुदाई।
दरसहि बंदहि करहि बडाई।
तित दिशि अंग३ बंग४ ते आदी।
पाइ कामना हुइ अहिलादी ॥५॥
पशचम दिशा वलाइत जेती।
तुरक हिंदु गन प्रेम समेती।
ले करि शसत्र तुरंगनिआवैण।
दरशन करति कामना पावैण ॥६॥
अुज़तर दिश के सिज़ख महानै।
वसतु दरबु सतिगुर ढिग आनैण।
श्री नानक फिरि करि सभि अविनी।
बिसतारन करि सिज़खी रवनी ॥७॥
जहि ते आवनि समरथ होई।
दरशन हेतु आइ सभि कोई।
जहि ते पहुचो जाइ न इहां।
१कामना पूरन करन लई।
२ुपूरब दिशा तोण।
३भागल पुर दा इलाका ते अुड़ीसा बी विच गिंदे हन।
४बंगाल।