Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) ४२४

५५. ।जहांगीर नाल शिकार। शेर मारिआ॥
५४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ४ अगला अंसू>>५६
दोहरा: खुशी करहु निज पीर जी! सभि सथान निज जानि।
दिहु दरशन को दिन इहां! इछ पूरन ठानि ॥१॥
चौपई: इम कहि सुनि कै करे बिसरजन१।
अुठि निकसे ले अपने सिख जन।
शाहु सभा बरासत भई।
निज निज थान सकल चलि गई ॥२॥
आए श्री सतिगुरु निज डेरे।
चहुदिशि बंदन होति घनेरे।
कुछबिसराम पौढि करि कीनि।
घटिका चतुर बिताइ प्रबीन ॥३॥
बहुर अुठे चढि चले तुरंग।
नदी बिलोकनि शामल रंग।
तीर तीर गमने गुर धीर।
हेरति बिमल प्रवाहति नीर ॥४॥
दूरि इकंत थान बहु सुंदर।
अुतर परे तहि श्री गुन मंदर।
सौचाचार करो थल थिरे।
जल कर चरन पखारनि करे ॥५॥
हाथ जोरि तहि सिज़खनि बूझे।
शाहु संगि किम बाक अरूझे२?
मुलाकात कैसे करि भई?
पूरब आइ कीनि अबि नई३ ॥६॥
रहे प्रसंन कि नहि दिशि दोअू।
चारी करति रहो सठ जोअू।
निज प्रिय जानि दास सिख सारे।
मिले जथा, सु प्रसंग अुचारे ॥७॥
नहीण शाहु के रिदे खुटाई।


१विदा।
२बचनां विच लगे।
३नवीण (मुलाकात)।

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