Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४३३

४६. ।तीरथां दा प्रसंग। कुरछेत्र॥
४५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १ अगला अंसू>>४७
दोहरा: तहिण ते पुन आगे चले, संगति सतिगुर संग।
जोतीसर तीरथ१ निकट पहुणचे, सुनो प्रसंग ॥१॥
चौपई: कैरव पांडव को दल भारा।
इहां आनि किय जंग अखारा।
इकठी अठ दस छूहनि२ भई।
होइ सनधबज़ध थिर थई३ ॥२॥
इक दिशि सपत, इकादश दूई४।
इस थल सो मुकाबलै हूई।
तब अरजन तिनि देखि बिचारा।
किस को करिहौण इहां संघारा ॥३॥
गुरू पितामा५ आदिक सारे।
जानो परै अपनि परवारे।
कुल नाशक कैसे अबि होवौण।
अपर शज़त्र को इहां न जोवौण ॥४॥
निज दलते निकासि करि संदन।
इस थल थिति किय नद सु नदन६।
आशै अरजन को जबि जाना।
करि अुपदेश दयो मन गाना ॥५॥
-तन सबंध को मिज़था जानि।
सत चेतन है अलिप महान७।
करता भुकता८ आप न लखीयहि।
मति करि निज सरूप को पिखयहि९- ॥६॥
इज़तादिक गीता महिण कहो।


१कुरखेत्र दे ८४ तीरथां विचोण इक।
२खूहणीआण (फौज)।
३हथिआराण नाल तिआर बरतिआर हो के डट गई।
४इक पासे सज़त (खूहणी, ते) गिआराण (खूहणी) दूजी वल
५दादा।
६नद दे पुज़त्र स्री क्रिशन जी ने।
७छोटिआण वडिआण विच सत चेतन है (अ) सत चेतन अतिशै कर निरलेप है।
८करन वाला ते भोगण वाला।
९आपणे सरूप ळ देख।

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