Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४३७

निज हित कुछ खेती करि लेति।
जे नित पालनि सोण करि हेत१ ॥२४॥
श्री सतिगुर को सबद सुखारो।
सरब जाति को है अधिकारो।
सरब काल अरु सगरे देश।
लघु बिसाल सभि हतहिण कलेश२ ॥२५॥
धनी निरधनी सभि ले पाइ।
अूठति बैठति हरि() गुनगाइ।
बिना सौच, कै करहि शनान।
करहि भजन पावनि कज़लान ॥२६॥
नीच अूच सभि कौ इकि सार।
तिसि पर सुनि द्रिशटांत अुदार।
बेद पुरान कूप जल जैसे।
बरोसाइ को इक किति कैसे३ ॥२७॥
सतिगुर बानी मेघ४ समान।
बरखै चहुंदिशि बिखै महांन।
बन के पसु पंछी सुख पावहिण।
करहिण पान अरु तपत मिटावहिण ॥२८॥
कूप किसू कै होइ कि नांही।
इक सम घन ते सभि सुख पांही।
सगरे खेती बोइ पकाइण५।
बिना जतन सभि ही सुख पाइण ॥२९॥तोण सतिगुर के शबद सुखेन।
पढि गति प्रापति जेन रु केन६।
धरती बिखै कूप को पानी।
तअू मेघ बरखहि, सुख ठांनी ॥३०॥


१(अुह बी तां) जे नित (खेती दे) पालं दा हित करी रखे।
२छोटे वडे सभ दे कलेश नाश करदे हन (गुरशबद)।
()पा:-रहि।
३वरोसाअुणदा है भाव लाभ प्रापत करदा है कोई इक किधरे।
४बज़दल।
५बीज के पकाअुणदे हन।
६जिस किसे ने।

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