Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ३) ४४२
५०. ।मुकति नामा॥
४९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ३ अगला अंसू>>५१
दोहरा: *बहुर सभा महि सतिगुरू,
सुमति सभिनि कौ दैन।
तागन कुमति बिकार को,
श्री मुख अुचरे बैन ॥१॥
चौपई: सुनि गुर सिज़खहु शुभ अुपदेशू।धरहि कमावै तजै कलेशू।
लखहु मुकतनामा इस नामु।
जिस के करति लहै गुरधाम१ ॥२॥
सिज़ख होइ किस करज न लेवै।
जे करि लेय भाव करि देवै।
सुने न झूठ, न मुख ते कहै।
संग झूठ के प्रीति न गहै ॥३॥
सतिसंगी हुइ साच कमावै।
संगि साच के प्रीति वधावै।
सच अुर धरहि म्रिजादा साची।
छल बिन होवै साच अुबाची२ ॥४॥
सचि के संग जीवका जोई।
तिस को करहि, दंभ बिनु होई।
कुछक बिचार दुहन महि३ अहै।
सूखम भेद सुमति को लहै४ ॥५॥
कहे साच किसि होवै घाति।
इस ते आदि बिचारहु+ बात।
तहां साच नहि अंगीकारै।
बनि अुपकारी कार सुधारै ॥६॥
इस पर इक गाथा सुनि काने।
*इह सौ साखी दी अज़ठवीण साखी है।
१गुरपुरी ळ प्रापत हुंदा है।
२सज़च कहिं वाला।
३भाव सज़च झूठ बोलं विच।
४बुधीवान सूखम भेद ळ जाण लवे।
+पा:-बिगारहि।