Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४४८

दोहरा: तीनहु तन जल जाल महिण१ बिचरति एव सुहाइ।
त्रै गिर मंदर पाइ जनु सागर मथहिण बनाइ२ ॥३७॥
भुजंग प्रयात छंद: इतै एक प्रभू, अुतै दोइ भाई।
रिसे लाल नेत्रं सु मुशटैण३ अुठाई।अरीले अरैण पाइ रोपे अगारे४।
भिरे संमुखे सूर बाणके जुझारे ॥३८॥
गहैण हाथ जोरैण मरोरैण महाना५।
भए रूप घोरैण न छोरैण सु थाना।
अरैण अंग सोण अंग मेलैण धकेलैण।
चपटैण हतैण६ दंड ठोकैण सु पेलैण७ ॥३९॥
तपे तेज ते क्रोध जागे जिन्हो के।
करैण घाव, लागैण सरीरं तिन्होण के।
कई कोस लौ खेत मैदान पायो८।
फिरैण बीच नीरं सु शबद अुठायो ॥४०॥
जुटे धरम जुज़धं बिरुज़धं बिसाले९।
तकैण मारिबे को फिरैण आलबाले१०।
चपेटैण चटाकैण११ सु मुशटैण अुतंगे।
करैण घात१२ जोधे सहैण घाव अंगे१३ ॥४१॥
तरै अूपरे त्रिजगे दाव खेलैण१४।
फिरैण दाहन बाम बाहूनि पैलैण१५।


१सारे पांी विज़च।
२तिंन मंद्राचल पहाड़ पाके मानो समुंदर ळ बनाके रिड़कदे हन।
३घसुंन।
४अड़न वाले अड़दे हन पैर रज़खके अज़गे।
५ग़ोर नाल बहुत मरोड़दे हन।
६चपेड़ां मारदे हन।
७बाहां (भाव मोढे या अरकाण) मारके धकेलदे हन।
८जंग भूमका रची।
९रुके बड़े।
१०चअुतरफे।११चटाक देके (मारदे हन
१२मारदे हन।
१३अंगां ते।
१४हेठ अुते टेढे दाअु खेलदे हन ।संस:॥ तिरयक = टेढा।
१५भुजा ळ धज़कदे हन।

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